किसान का आक्रोक्ष
लेलो आलू, प्याज मेरी, मुफ्त में ले जाओ ये!
मैं कहाँ से लाऊँ भाड़ा इसकी मंडी के लिए?
मेथी, पालक, मूली, बैंगन, और टमाटर लाल लाल
भिन्डी, मिर्ची, ककड़ी, गाजर, दूधि और गोभी भी हैं
ये सिर्फ सब्जी ही नहीं, खून है, पसीना है मेरा
सिस्कियां बच्चों की मेरे, मेरी पत्नी की पुकार
बैंक का है कर्ज़ ये, और गहने हैं माँ के मेरे
दो महीनों की तपस्या, त्याग है परिवार का
राज है बनियों का, मोटे मोल्स का, बाज़ार का,
२ रुपय्ये मुझको दें, और २० खुद लें साहूकार
शहर के पानी की बोतल ६ किलो सब्जी के दाम
आधुनिक भारत में तो बेचारा मर जाए किसान
आपने जो एक्सप्रेस सड़कें बना दी है यहाँ
गाँव के, खेतों के सीने चीर के जाती हैं जो
शाला इधर, शिष्य उधर, गायें इधर, तालाब उधर
जीवन मेरा बिखरा दिया, कर डाला सब कुछ अस्त व्यस्त
गाँव से जाती हैं यह, पर गाँव की यह हैं नहीं
गाये, बकरी, बैलगाडी, साईकल भी ‘बैन्ड’ हैं
और आपकी यह सुपर फ़ास्ट, राजधानी गाड़ियाँ
दनदनाती हैं मगर रूकती नहीं यह गाँव में
ऊंचे पुतले, फ्लाई-ओवर, गरबा के मंडल, रिवर-फ्रंट
शहर के बाबू के होंगे, मेरे यह किस काम के?
जिसके बच्चे भूख से बेचैन, सो सकते नहीं
क्या मनाएंगे वो सीमा पर सफलता का जश्न?
वाह सर! कैसा अनोखा और विचित्र है यह विकास
जिस्से वंचित देश के ९० प्रतिशत हैं किसान!
तूवर, गेहूं, धान, और मकई या गन्ने हो या बाजरा
सीमा पे मरना एक बार, खेतों में मरना बार बार
जब भी मैंने मांग की, स्वाभिमान की, अधिकार की
आपने दीं गालियाँ, कुछ लाठियाँ, कुछ गोलियाँ!
भीख तो मैं माँगता हूँ आपसे कोई नहीं!
बस चुका दो मुझको मेरी कठिन मेहनत का बदल!
मुझको झांसों में बहुत डाला है तुमने बार बार
छोटा सा एक कर्ज, थोडा पानी, एक टूटी सड़क
एक झलक मनरेगा की, और थोड़ी बिजली की चमक
मुझको ललचा कर हड़प ली तुम ने मेरी सब ज़मीन
हिंदु-मुस्लिम, जात-पात, और प्रान्त मैं बाँटा मूझे
राम मंदिर, गाये-बंदी से भी भड़काया मुझे
हमको लडवाया बहुत, और संगठन तोडा भी है
अब नहीं, बस अब नहीं, मैं अब बहल सकता नहीं
गैस, बिजली और इन्टरनेट कहाँ मेरे लिए?
सिर्फ शाला है, मगर कॉलेज कहाँ बच्चों के हैं?
अब भी पानी के लिए मीलों मेरी पत्नी चले
स्वच्छ भारत में मेरे शौचालय अब तक ना खुले
दूसरों को वेतन आयोग, सिर्फ मनरेगा हमें?
सोना चांदी दूसरों को, लोहा, तांबा बस हमें?
आत्महत्या गर नहीं तो क्या वो बेचारा करे?
स्वाभिमान से खुद मरे, या आपके हाथों मरे!
टाटा, अम्बानी, अडानी, रेड्डी, टोरेंट और सहारा
चांदी उनकी, खून हमारा; लाभ उनका, त्याग हमारा?
मैं किसान हूँ, ना समझ था, अब समझ सकता हूँ सब
इसलिए: बस अब नहीं, अब मैं यह सह सकता नहीं!
आग जो उठी है भारत वर्ष में चारों तरफ
घाव गहरे कुछ तो होंगे, आक्रोश इतना जो है!
अब सहेंगे हम नहीं, बस अब नहीं, कुछ भी नहीं
लाठियों और गोलियों से अब तो हम डरते नहीं
बंद करो ये खोटी बातें, काम की कुछ बात हो
हम बड़े भोले थे पहले; अब लेन हो, और देन हो
झूठे बहलावे से, भटकावे से अब हम दूर हैं
अब छलावा कुछ नहीं, या दाम हों, या दूर हों
मो. ह. जौहर
अहमदाबाद, ७ जून ’१७